पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५११

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विद्यापति । ४७५ नयन सिगार बाहु लिखि राख । करति बरत रवि शिव शिव राख ॥१४॥ । भनइ विद्यापति आखिर लेख । बुध जन हो से कह ए बिसेख ||१६|| १६ माधव देखालि मोञ सा अनुरागी । मलयज रज लए सम्भु उकुति कए उरज पुज ए तुअ लागी ॥३॥ भव हित अरि भगिनी पति जननी तनय तात वन्धु रुपे । नागसिरज सिर सोभ दुखज सम देखल बदन सरुपे ॥४॥ खगपति पतिप्रिय जनक तनय सम वचने निरुपलि रमनी । सुरपति अरि दुहिता बरबाहन तसे असन सम गमनी ॥६॥ तुअ दरसन लागि ऊपजल बिपधर सुकवि विद्यापति भाने । राजा शिवसिंह रूपनराअन लखिमा देवि रमाने ॥८॥ वसु बिस पावे हरल पिआ मोर । अन्ध तनय प्रिय से ओ भेल थोर ॥ २ ॥ जिवसञो पञ्चम से तनु जार। मधुरिपु मलय पवन पिक मार ॥ ४ ॥ पहिलुक दोसर आइति गेल । आदिक तेस्म्र अनाएत (भेल ॥ ६ ॥ सूर प्रिया सुत , तन्हिकर ० * * २० खिन भेल गत ॥ ८ ॥ | आवे जाएत जिव पातक त । जिव मोहि ॥१०॥ भनइ विद्यापति । | मुरारि ॥१२॥