पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५०९

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विद्यापति । १७३ । विरह अनल आनि जुड़ावए सीतल सीकर आनि । सैलवती सुत दरसने मुरुग्छखस सयानि ॥२॥ माधव कह कि करति नारि ।। गिरि सुता पति हार विरोधी गामी तनय धारि ॥४॥ अति जे विकलि चित न चेत ए दूरे पीहर हार । विहगवल्लभ असन असन से सखि सह ए ने पार ॥६॥ दरसे चन्दन मिड नडाव ए करे न कुसुम लेय । हरि भगिनी नन्दन वालहि सादर किछु न देय ॥८॥ अधिक आधि वैाधि चढ़ाउलि दिनहु दुवर काए । आजे जमपुर सगर नगर उजर देति बसाए ॥१०॥ पङ्कजवन्धुवैरिको बन्धव तसे सम आनन सोभे । नयन चकोर जोड़ जनि सञ्चर तथिहु सुधारस लोभे ॥२॥ सखि हे जाइते देखलि वर रमणीं । हरकङ्कन आनन सम लोचने तसे वरवाहन गमनी ॥४॥ सैसव दसा दोने परिपालाल तसु सम वोलइते गिरिजापति रिपु रूप मनोहर विहि नरम सिन्धु वन्धु गिरि तात सहोयर पीने पयोधर दुइ पय छाडि तेसर नहि सञ्चर हारा तुर