पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५०६

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४७० विद्यापति । जननी असन वाहन के भासा सारग अरि कर सादे । । ते दुहु मिलित नाम एक दुरजन ते मोहि परम बिपादे ॥२॥ सखि हे रमन भवन परवासी । ऋतुपति राए आय संप्रापत ते भउ परम उदासी ॥४॥ सुर अरि गुरु वाहन रिपु ता रिपु ता रिपु अनुसने तावे । हरि कपट नपति तासु अनुज हित से मोहि अवहु न आवे ॥६॥ हरि पति वैरि सखा सम तामसि रहसि गमावसि रोइ । समन पिता सुत रिपु घरिनी सख सुत तनु वेदन होइ ॥२॥ माधव तुअ गुने धनि बड़ खानी । पुररिपु तिथि रजनी रजनीकर ताहू तह बड़ि हीनी ॥४॥ दिविषद पति सुअ सुअ रिपु वाहन भख भख दाहिन मन्दा । ब्रह्मनाद सर गुनिकहु खाइति छाड़ि जाएत सबै दन्दा ।।६।। सारङ्ग साद कुलिस कए मान ए विद्यापति कवि भाने । राजा शिवसिंह रूपनराएन लखिमा देवि रमाने ॥८॥ अजर धुनी जनि रिपु सुअ घरिनि ता वन्धु, न देअए राहीं । तेसर दिगपति पतने सताइए बड़ वेदन हरि चाही ॥२॥