पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/५०५

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विद्यापति । ४७१ माधव तुअ गुणे धनि बड़ि खीनी । महिखातनअ भान छिल ता विधु देह दुबरि ता जीनी ॥४॥ राजाभसन दरस कण्ठीरव अछिक दहिन सतावे । लाए तमोर जीवे तवे खाइति जदि ने अोव परथावे ॥६॥ काकोदर प्रभु रिपुध्वज किङ्कर विद्यापति कवि भाने । राजा शिवसिंह रूपनरीअन लाखमा दौवं रमाने ॥८॥ हिज आहर आहर सुत नन्दन सुत हर सुत रामा ।। चनज वन्धु सुत सुत दए सुन्दरि चललि सङ्केतक ठामा ॥२॥ माधव बूझल कला विशेखी ।। तुअ गुण लुबुधलि पेम पिसालि माधव आइलि उपेखी ॥४॥ हरि अरि पति ता सुअ वाहन जुवति नाम तस होइ । गोपति पति अरि सह मिलु वाहन विरमति कबहु न होई ॥६॥ नागरि नाम जोग धनि अव हरि अरि आरपति जाने । नउमि दसाहे एके मिलु कामिनि सुकवि विद्यापति भाने ॥८॥ हरि रिपु रिपु प्रभु तनय से घरिन । विवुधासन सम वचन सोहाग्रोन