पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४९८

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-२० ५० ५० ५० ५०००००००००००००००००••••••••••••• ४६२ । विद्यापति । चल चल पथुक चलह पथ माह । वास नगर बोलि अनतहु याह ॥ ६ ॥ ऑतर पॉतर साँझक वेरि । परदेस वसिअ अनागत हेरि ॥ ८॥ घोर पयोधर जामिनि भेद । जेकर रह ताकर परिछेद ॥१०॥ भनइ विद्यापति नागरि रीति । व्याज वचने उपजाव पिरीति ॥१२॥ १० हमराहु घर नहि घनिक लेस । ते कारने गुनिअ परदेस ॥ २ ।। नाना रतन अछए मझ हाथ । सेवक चाकर केओनहि साथ ॥ ४ ॥ सहजक भीरु थिकाहु मतिभोर । अनि जगाए के करत अगर ॥ ६ ॥ वैसि गमाव कौनक माझ । अवगुन अछएरतउँधी सॉझ ॥ ८ ॥ भनइ विद्यापति छइल सोभाव । नागर पथुक उकुति विरमाव ॥१०॥ ११ | पथिक। , सुन्दरि हे तो सुबुधि सैयानि । मरी पियास पियावह पानि ॥ २ ॥ परकीया'नायिका ।। के तो शिकार ककर कुल जानि । बिनु परिचय नहि देव पिढ़ि पानी ॥ ४॥ पथिक । • थिकहुँ पथुकजन राजकुमार । धनि के वि भरर्मि संसार ।।६।।