पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४८९

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विद्यापति । '४५ विजावइ कविवर एहु गावए मानव भने आनन्द भएको । सिंहासन सिवसिंह वइठो उच्छवै वैरसं विसरि गए ॥१४॥ शिवसिंह का युद्ध । दूर दुगूगम दमसि भन्ने ओ गाड़ गड़ शूठी गजे ओ पातिसाह ससीम सीमा समर दरसेओ रे ॥१॥ ढोल तरल निशान सदहि भेरि कोहल सङ्ख नहि तीनि भुअन निकेत केतक सन भरिओ रे ॥२॥ कोहे नीरे पयान चाल औ वायु मध्ये राय गरु ओ तरणि ते तुलाधार परताप गहियो रे ॥३॥ मेरु कनक सुमेरु कम्पिय धरणि पूरिय गगन झम्पिय हाति तुरय पदाति पर्यभर कमन सहिओ रे ॥४॥ तरल तर तरवारि रङ्गे विजुदाम छटा तरङ्गे | धोर धन सङ्घात वारिस काल दरसो रे ॥५॥ तुरय कोटि चाप चूरिय चार दिस चौ विदिस पूरिय विषम सार आसार धारा धौरनी भरियो ॥६॥ अन्ध कुअ कवन्ध लाइ फेरवि फफ्फारिस गाइ रुहिर मत्त परेत भूत वेताल बिछलिओ ॥७॥