पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४७४

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विद्यापति ।। निरधन जन चोलि सबै उपहासए नहि आदर अनुकम्पा । तोहे शिव पाओल अकि धुथर फुल हरि पाओल फुल चम्पा ।। ४ ।। खटग काटि हरे हर जे बँधाोल त्तिशुल भैगय करु फारे । बसहा धुरन्धर हरे लए जोतिअ पाएत सुरसरिधारे ॥६॥ भनइ विद्यापति सुनह महेशर इ जानि कइलि तुअ सेवा । एतए जे वरु से बरु होअग्रो प्रोतए सरन देवा ॥८॥ । मोर चौरा देखल केओ कतहु जात । वसहा चढल विष भाड़ खात ॥ ३ ॥ ऑखि निडड मुह बुयइ लार । पथके चलत चौरा विशम्भीर ॥ ४ ॥ वाट जाइत केओ हलव ठेलि । अव हुनिवौरा बिनु मय अकैलि ॥ ६ ॥ हात डमरू कर लोइया साथ । योग जुगुलि कृमि भरल भाय ॥ ८॥ अरगजा चटाइय आठो आङ्ग । शिर सुरसरि जटा बोल गाङ्ग ॥१०॥ भनहि विद्यापति शम्भूदेव । अवसर अवश हमर सुधि लेव ॥१२॥ विकट जटाचय किछ नइ लोक भय है उर फणीपति दिग वास । कोन पथे भेटताह है, आगे माइ, अाइत उमत हमार ॥ २ ॥ त्रिपुर दहन कर छारइ खाल भरु है वसहा चढ़ल वर वुढ़ । तीनि नयन हर एक अनल भर हे शिरे सुरसरि जलधार ॥ ४ ॥ भनइ विद्यापति गौरी विकल मति हे ओहि उमताक उदेश ॥ ५ ॥