पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६३

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विद्यापति । ४३३ विद्यापति कह सुन्दर धैरज मन अवगाह ।। जे अछि जनिक विवाहिनी तनिका सैह पय नाह ॥१०॥ -~-१०:------ | १५ मङ्गल विलुवित्र सिन्दुरे पिठारे । तहे भालि सोपलि साजलि छारे ॥ २ ॥ चलह चल हर पलट दिगम्बर । हमरि गोसानुनि तोह न जग वर ॥ ४ ॥ हर चाह गुरु गउरवे गोरी । कि करव तवे जपमाली तोरी ॥ ६ ॥ नअने निहारव सम्भ्रम लागी । हिमगिरि धीए सहव कइसे आग ॥ ८॥ भाल वलइ नयनानले रासी । फरकत मउल डाढ़ति पटवासी ॥१०॥ चड़े सुखे सासु चुमओवाह मया । ओठ चुरत सुरसरिके सथा ॥१२॥ करख सखी जने केलि अलापे । विलग होएत फुफुएत सापे ॥१४॥ विद्यापति भन बुझह जुगुती । मेलि कराउवि हमे सिव सकुती ॥१६॥ जटाजूट दह दिस दए इलु नमाए । वसह चढ़ल उपगत भेल आए । ३ ।।। दुर सो मन्दाइनि हलिअ पुछाए । के वरिझाती के इथि जमाए ॥ ४ ॥ कण्ठे आएल छइक्लि बासुकि राए । सेहे वरिआती इसर अइसन ठाकुर हर सम्पति थोरी । भर उठि आइलिछइल्लिभसमकझोरी ॥ ८ ॥ जमाए ॥ ६ ॥ विधि न करए हर खेलए पासा सारि । सापक सङ्गे शिवे रचलि धमारि ॥१०॥