पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४६२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति ।। आगे माइ एहन उमत वर लइला हेमत । गिरि देखि देखि लगइछ रङ्ग ।। एहन उमत बुढ़ घोड़वो न चढ़इक जाहि घोड़ रङ्ग रङ्ग जङ्ग ॥२॥ बाघछाल जे वसहा पलानल सापक लगले तङ्ग । डिमिक डिमिकि जे डमरु बजइन खटर खेटर करु अङ्ग ।।४।। भकर भकर जे भाङ्ग भकोसथि छटर पटर कर बङ्ग । चानन सो अनुराग न थिकइन भसम चढ़ावथि अङ्ग ॥६॥ भूत पिशाच अनेक दल सिरिजल शिर सों वहि गेल गङ्ग । भनहि विद्यापति सुनिए मनाइनि थिकाह दिगम्बर भड् ॥८॥ घर घर भरमि जनम नित तनिका केहन विवाह । से अव करव गौरी वर इ होय कतय निरवाह ॥२॥ कतय भवन कत आङ्गन बाप कतय कृत माय । कतहु ठहोर नहि ठेहर के कर एन जमाये ॥४॥ कोन कयल एहो असुजन केयो न हिनक परिवार । जे कयल हिनक निवन्धन धिक थिक से पजियार ॥६॥ कुल पलिवार एको नहि जनिका परिजन भूत चैताल । ९. देखि झुर होय तन के सह्य हृदयक शाल ॥८॥