पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४४२

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४२० विद्यापति । ए साख सुपहु समागम सुख कहहि न जाए । मन कर मनाओ न छाडि राखिअ हिअ लाए ॥४॥ , पुरख गरि हमे पूजाल पुने परिनत नेह ।। जीव एक कए मानल की जो दुइ देह ॥६॥ लछमी नराएन नृप कह तेहि गुनमति नारि । जा सो नेह वढावह सेहे देव मुरारि ॥८॥ , राधा । के मोरा जाएत दुरहुक दूर । सहस सौतिनि वस मधुरपुर ॥ २ ॥ अपनहि हात चललि अछ नीधि । जुग दश जपले आजे भेलि सीधि ॥ ४ ॥ भल भेल माइ हे कुदिवस गेल । चान्द कुमुद दुहु दरशन भेल ।। ६ ।। कतए दमोदर देव वनमारि । कतए कहमे धनि गोप गोयारि ॥ ८ ॥ आजे अकामिक दुइ दिठि मेलि । देव दाहिन भेल हृदय उवले ॥१०॥ भनइ विद्यापति सुन वरनार । कुदिवस रहए दिवस दुइ चारि ॥१२॥ राधा ८३२ माधव कत तोर करव वड़ाई ।। । तोहर हम ककरा कहव से अधिक ।