पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४३९

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विद्यापति । ४१५

माइ हे जनम कृतारय भेला । वदन निहारि अधर मधु पिविक हरि परिरम्भन देला ॥४॥ पीन पयोधर हरखि परासि करु निर्विवन्ध खोएलन्हि पानी । पुलक पुरल तनु मुदित कुसुमधनु गावए सुललित वानी ।।६।। तोञो धनि पुनमति सव गुण गुणमति विद्यापति कवि भाने । राजा शिवासिँह रूपनराएन लखिमा देवि रमाने ॥८॥ सखा । ८२० सरदक चान्द सरिस तौर मुख रे । छाडल विरह अंधारक दुख रे ॥ २ ॥ अमिल मिलित अछ सुदृढ समाज रे । पुरुवक ने परिनत भैल आजरे ॥ ४ ॥ हेरि हल सुन्दरि सुनह वचन मोर रे । पारिहर लाल सुलह मन तोर रे ॥ ६ ॥ रसमति मालति भल अवसर रे । पिव मधुर मधु भूखल भमर रे ॥ ८॥ उपनत पाहुन ऋतुपति साह रे । अपनुक अङ्गिरल कर निरवाह रे ॥१०॥ सुपुरुखे पाओल सुमुखि सुनारि रे । दैवे भेराल उचित विचार रे ॥१२॥ सखी । ८२१ चिरदिने से विहि भेल निरवधि | पुराल दुहुक मनोभव साध ॥ २ ॥ आमोल माधव रति सुख वास । बाढल रमनिक मनहि उलास ।। ४ ।