पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४२९

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विद्यापति ।। ४०७ भमर देखि भञ भावे पराएल गहए सरासन काम लो। भनइ विद्यापति रूपनराएन सिरि सिवसिंह देव नाम लो ॥६॥


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सखी । ८६४ गगन वलाहके छाड़ल के वारिस काल अतीत । करिय विनति सै| हें शायव जन्हि विनु तिहुयन तीत ॥२॥ वहो सुमति संघातिनि रे वाट निहारय जॉउ। कुदिना सब दिन नहि रह सुदिवस मन हरखाउ ॥४॥ सामर चन्दा उगलाह रे चान्दै पुन गेलाह अकास । एतवहि पियाकै अयवा से पलटत विरहिनि सॉस ॥६॥ सूतिये दुरहि निहरवा रे जति दुर हियरा धाव । कि करत हियरा कुला रे श्रागिहि वात न पावे ॥८॥ विद्यापति कवि गएवा रे रस जनिए रसमन्त । मन्ति महेसर सुन्दर रे रेणुक देवि कन्त ॥१०॥ राधा । ८०५ इमर मन्दिरे जव आग्रोव कान । दिठि भरि हेरव से चान्द वयान ॥ २ ॥ नहि नहि बोलव जव हम नारि । अधिक पिरीति तवे करव मुरारि ॥ ४ ॥