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विद्यापति । ४०३ • भावोल्लास । राधा । ७६५ • 'सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे । स्वपनहुँ रुप वचन एक भाखिय मुख सौ दूरि करु चीरे ॥२॥ तोहर बदन सन चान होयथि नहि जइओ जतन विह देला । कई वेरि काटि वनाओल नव कइ तइओ तुलित नहि भेला ॥४॥ लोचन तुल कमल नहि भइ शक से जग के नहि जाने । से फेरि जाय लुकायल जल भय पङ्कज निज अपमाने ॥६॥ भनहि विद्यापति सुनु वर जयौवति इ सभ लछमी समाने । राजा सिवसिंह रूपनरायन लखिमा देइ पति भाने ॥८॥ राधा । ७६६ | कि कहव रे साख रजनिक काज । स्वपनहि हेरलु नागर राज ।। २ ।। आजु शुभ निशि कि पोहायलु हाम । प्राण-पिया के करलु परणाम ॥ ४ ॥ विद्यापति कहे सुन वरनारि । धैरज धर तोहे मिलव मुरारि ॥ ६ ॥ दूती । ৩৩ अपने आएल सखि मका पिया पासे । तखनुक कि कहवं हृदय हुलासे ॥ २ ॥