पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४१९

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विद्यापति । भनइ विद्यापति सुनह नागर चिते न मानह आन । दिवस थोर वहि मिलव नागरि मने गुनि इह जान ॥८॥ दूती । ७६२ अनुखन माधव माधव सुमरइत सुन्दर भेलि मधाइ । को निज भाव सोभावहि विसरल अपन गुण लुबधाइ ॥२॥ माधव अपरुव तोहर सिनेह ।। अपन विरहे अपन तनु जर जर जिवइते भैलि सन्देह ॥४॥ भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल छल लोचन पानि । अनुखण राधा राधा रटतहिं आधा आधा वानि ॥६॥ राधा सो जव पुनतहि माधव माधव सञो जव राधा । दारुण प्रेम तवहि नहि टूटत वाढत विरहक बाधा ॥८॥ दुहुँ दिश दारुहने जैसे दुगधइ आकुल कीट परान । ऐसन वल्लभ हेरि सुधामुखी कवि विद्यापति भान ॥१०॥ राधा । ७६.३ रितुराज आज विराज हे सखि नागरी जन वन्दिते । नवरङ्ग नवदल देखि उपवन सहज शेभित कुसुमिते ॥२॥ 6