पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४१४

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३६४ विद्यापति ।

दूती । । । '७८१ करहि मिलल रह मुख नहि सुन्दर जनि खिन दिवसक चन्दा ।। प्रकृति न रह थिर नयन गरय निर कमल गरए मकरन्दा ॥२॥ हे माधव तुअ गुणे झामरि रामा । ।। दिने दिने खिन तनु पिड़ए कुसुमधुनु हरि हरि ले पए नामा ॥४॥ निन्दय चन्दन परिहर भूषन चॉद मानए जनि आगी । दसमि दसा आवे ते धनि पाओल वधक होएवह तोहे भागी ॥६॥ अवसर बहला कि नेह बढाव विद्यापति कवि भाने । राजा सिवसिंह रूपनरायन लखिमा देवि रमाने ॥८॥ दूती । . ७८३ कत नलिनी दुल सेज सोउवि कत देव मलअज पङ्का।' जलज दल न कत देह देशोव तथुहु हुतासन शङ्का ॥२॥ कह कइसे राखवि तरुणी तरुण मदन परतापे ॥३॥ । चिन्ताझे करतल लीन वदन तेसु दोख उपजु मोहि भाने । दर लोभे विहि अपुरुवं जनि सिरिजल चान्द कमल सन्धाने ॥५॥ दारुन पचसर मुरुछ धरनि पल सुमार सुमरि तुअ नेहे । तोहें पुरुषोतम त्रिभुवन सुन्दर अपद ने अपजस लेहे ॥६॥