पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/४०७

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विद्यापति । ३९७

दूती । ७६८ प्रथमहि रङ्ग रभस उपजाए । प्रेमक ऑकुर गेलाहे बढ़ाये ॥ २ ॥ से आवे दिन दिन तरुनत भास । तो तरवर मनमथे लेल वास ॥ ४ ॥ माधव ककें विसरलि वर नारि । वड परिहर गुन दोस विचारि ॥ ६ ॥ पिक पञ्चम डरे मदन तरास । सर गद गद धन तेज निसास ॥६॥ नयन सरोज दुहू वह नीर । काजर पधरि पधीर पर चीर ॥१०॥ तेहि तिमित भेल उरज सुबेस । मृगमदे पूजल कनक महेस ॥१२॥ सुपुरुप वाचा सुपह सिनेह । कबहु न विचल पखानक रेह ॥१४॥ भनइ विद्यापति सुन वरनारि । धरु मन धीरज मिलत मुरारि ॥१६॥


-- दूती । ७६६. सुन सुन माधव पड़ल अकाज । विरहणी रोदिति मन्दिर माझ ॥ २ ॥ अचेतन सुन्दरी न मिलये दिठि । कनक पुताल जैसे अवनीये लौठि ॥ ४ ॥ के जाने कैसन ताहारि पिरीति । बाढइ दारुण प्रेम वधइ युवति ॥ ६ ॥ कह विद्यापति सुनह मुरारि । सुपुरुख न छोड़इ रसवती नारि ॥ ८ ॥