पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३९३

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विद्यापति । ३७७ दूति उपदेश सुनि गुनि सुमिरल तइखन चलला धाई। मोदवती पति राघव सिंह गति कवि विद्यापति गाई ॥१०॥ दूती । ७५० माधव हेरि आयलॉ राहि ।। विरह विपति न दय समति रहल वदन चाहि ॥२॥ मरकतथलि शुतलि अलि विरहे से खीन देही । निकष पाषाणे जनि पाँचवायो कपल कनक रेहा ॥४॥ वयान मण्डल लुठय भुतल ताहे से अधिक शाहे । राहु भये शशी भुमे पडु खसि ऐसे उपजल मोहे ॥६॥ विरह वेदन कि तोहे कव सुनह निठुर कान ।। भन विद्यापति से जे कुलवती जीवन संशय जान ॥८॥ दूती । ७५१ माधव पेखलॅ से धनी राहि । चित पुतलि जनि एक दिठे चाहि ॥ २ ॥ वेढल सकल सखी चौपाशा । अति खीण सास बहत तसे नासा ॥ ४ ॥ अति खीण तनुजनि काञ्चन रेहा। हेरइते कोइ न धरु निज देहा ॥ ६ ॥ 48