पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३७०

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निम विद्यापति ।। कहच समाद बालभु साखमोर । सवतह समय जलद । वड़ घोर ॥ ६॥ एके अवलाहे कुपुत पञ्चवान । मरम लखए कर सर, सन्धान ॥ ८॥ तुअ गुन वान्धल अछए परान । परवेदन देख पर नहि जान ॥१०॥ ७१३ राधा । सखि हे के नहि जानत हृदयक वेदन हरि परदेस रहइ ।।" विरह दसा दुख काहि कहव जे तसु कहिनि कहइ ॥२॥ धारा सघन चरस धरणीतल विज़रि दशदिश विन्धह। फिरि फिरि उतरोल डाके डाहुकिनि विरहिनि कैसे जिवइ ॥४॥ जौवन भेल वन विरह हुताशन मनमय भेल अधिकारि ।" विद्यापति कह कतहु से दुख सह वारिस निसि अँधियारि ॥६॥ राधा-1. की पहु पिसुन वचन देल कान । की पर कामिन हरल गेज्ञान ॥ २ ॥ की पहु विसरल पुरुवक नेह । की जीवन दहु परल सन्देह ॥ ४ ॥ झूठा वचन, सुइलाहु मोळे लागि । तुरअ वॉघि घर लेसलि अगि;६ ॥ कन्त दिगन्त गेला है को लागि । सीतृलि अनि वृरिस घने- आगि ॥ ८ ॥