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विद्यापति । सखि हम जीयब कथि लागि । जे विनु तिलु एक रहइ न पारिय से भेल पर अनुरागि ।। ४ ।। अङ्गुलक अङ्गुटि से भेल वहुटि हार भेल अति भार । मनमय वाणहि अन्तर जर जर विद्यापति दुख कहइ न पार ॥ ६ ॥ ६६६ राधा । कालिक अवधि कइए पिया गेल । लिखइते कालि भीत भरि भैल ॥ २ ॥ भेज प्रभात कहत सवहि ! कह कह सजन कालि कवहि ॥ २ ॥ कालि कालि करि तेजल आश । कन्त नितान्त न मिलल पाश ।। ६ ।। | भनइ विद्यापति शुन वरनारि । पुर रमणीगण राखल चारि ॥ ८ ॥ राधा । प्रेमक अङ्कुर जात आत भेल न भेल जुकल पलाशा । प्रतिपद् चॉद उदय जैसे यामिनी सुख लव मैं गेल निराशा ॥२॥ सखि हे अब मोहे निठुर भधाइ अवधि रहल बिसराइ ॥४॥ के जाने चॉद चकोरिणी वञ्चव माधव मधुप सुजान । अनुभवि कानु पिरीति अनुमानिये विघटित विहि निरमान ॥६॥