पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३५९

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विद्यापति । जव हम वाला परिहरि गेला । किये दोष किये गुण वुझयन भेला ॥ ६ ॥ अव हम तरुणी बुझल रस भास । हेन जननहि मोर कहे पिया पास ॥ ८॥ आयव हेन करि मोर पिया गैला । पूरवक जत गुण विसरित भेला ॥ २० ॥ भनाई विद्यापति शुन अव राइ । कानु समुझाइते अव चलि जाइ ॥ २२॥ राधा । जौवन रूप अछल दिन चारि । से देखि आदर कयल मुरारि ॥ ३ ॥ आव भेल झाल कुसुम सवे कुछ । वारि विहुन सबकेश्रो नहि पुछ ॥ ४ ॥ हमरि ए विनति कहव सखि रोय । सुपुरुष वचन अफल नहि होय ।। ६ ।। जावे रहइ धन अपना हाथ । तावे से दूर कर सङ्ग साथ ॥ ६ ॥ धनीकक आदर सव तह होय । निरधन वापुर पुछय न कोय ॥ २०॥ भनई विद्यापति राखव शील । जो जग जीवियनवउ निधि मिल ॥ २२॥ राधा । पहिल पिया मोर मुखे मुख हेरल तिल एक न छोडल अड़ ! रूप प्रेमपाशे तनु गॉयल अव तेजल मोर सङ्ग ॥ ३ ॥