पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३३७

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विद्यापति । ३१७ विहिं निरय कोने दोसे देहु देल दुख मन मधरै। मन करे गरल गरासिय पाप आतमवध रे ॥४॥ जीवन लोग मरन सन मरन सोहावन रे।। मोर दुख के पतिआएत सुनह विरहि जन रे ।।६।। विद्यापति कह सुन्दर मन धीरज धरु रे । अचिर मिलत तोर प्रियतम मन-दुख परेहरु रे ॥८॥ राधा । केत दिन आस दृए धरव हिया | जऊवन काल विदेस रहु पिया ॥ २ ॥ | से जब आगे नियर मकु अछला । मन क्छुिभल मन्द हम नहिगनला ॥ ४ ॥ अव से सब पीरचय भेल । कानु निठुर परीहरि एक दिस विपम कुसुमसर । अशोकादिस गरुअ गरिम डर ॥ ८ ॥ गैल ॥ ६ ॥ राखच सिल कौन परि। ऐसन दौस न बुझल हार ॥१०॥ राधी । ६३६ पुत्व जत अपुरुच भेला । समय वसे सेहो दुर गेला ॥२॥ काहि निवेदो कुगत पहु। जे किछु करिअ भुजिम सेहु ॥४॥ सहि साजनि धैरज सार । नीरसि कह कवि कण्ठहार ॥६॥