पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३१४

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| २६३ विद्यापति।

राधा । ५८२ । अाजु मझु सरम भरम रहु दूर । अपन मनोरथ से परिपूर ॥ २ ॥ कि कहव हैं सखि कहेइत हसि । सव विपरीत भैल आजुक विलास ॥ ४ ॥ जलधर उलटि पडल महामाझ । उयल चारु धराधर राज ॥ ६ ॥ मरकत दरपन हेरइत हाम । उचनीच न बुझि पड़लों सोइ ठाम ॥६॥ पुन अनमानिये नागर कान । तकर वचने भैल समधान ||१०|| निवासे वास पुन देयल सोइ । लाजे रहल हिये आनन गोइ ॥१२॥ सोइ रसिकवर करे अगोरि । ऑचरे श्रमजले पोछल मोरि ॥१४॥ मृद मृदु विजइत घुमल होम । भनइ विद्यापति रस अनुपाम ॥१६॥ राधा । ५८३ | १६ कि कहब ए सखि केलि विलासे । विपरित सुरत नाह अभिलास ॥ कुचजुग चारु धराधर जानी । हृदय परत ते पहु देल पाना ।" मातलि मनमयें दुर गैल लाजे । अविरल किङ्किनि, कङ्कन वाज। घाम विन्दु मुख सुन्दर जोती । कनक कमल जनि फरि गेलिमाता कहहि न पारिअ पिय मुख भासा । समुह निहारि दुदु मनं हास। भनई विद्यापति रसमय वानी । नागरि रम पिय अभिमत जाना | मने हासा ॥१०॥ | अभिमत जानी ॥१२॥