पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३०६

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विद्यापति ।

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राधा ।। ५७२। ।। पहिलहि सरस पयोधर कुम्भ । आरति कत न करए परिरम्भ ।। २ ॥ अधर सुधारस दुरसए लोभ । राङ्कक हाथ रतन नहि सेभ ॥ ४ ॥ सजनि कि कहीं कहइते लाज । काहुक आइति पललुह आज ॥ ६ ॥ नावि ससरि कतए दहू गेलि । अपनाह आङ्ग अनाइति भलि ॥८॥ करतल तले धरिय कुच गोए । पडले तलित झापि नाह होए ॥१०॥ भनई विद्यापति न कर सन्देह । मधुतह सुन्दरि मधुर सिनेह ॥१२॥ सखी । ५७३ सघने आलिङ्गन करु कत छन्द । जनि घन दामिनि लागल दुन्दै ॥ ३ ॥ वदने बदन धरु मनमथ फन्द । किये एक ठामै बान्धल युगल चन्दै ॥ घेरि रहल कच तिमिर वियर । जनि र जीत उदय परचार ॥ ६ ॥ रागी अधर उरज अति • चण्ड । लागल ए वदन खण्डने दण्ड ॥ मदन महोदधि उछल हिलोर । जनि निधि युगल करत झकझोर ॥ श्रम जले पूरित दुहु भेल एक । जनि रतिमङ्गल जय अभिसक ॥ कुच पर विदगध पानि विराज । कनक कलले जनि किशलय साज ॥ सब कानन भार परिमल भान । अलिकुल दुहु जन गुनगान ॐ जन गुनगान ॥१६॥