पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/३०४

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विद्यापति ।

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२८४ विद्यापति । | ० ० ० ० ० ० ० ० ० /- wwwv4 ०० ५-०० ० ००० ००० ००० की साख कहब केलि विलासे । निन्न अनाइति पिया हुलासे ॥ ६ ॥ नीवि विघटए गए हारे । सीमा लॉघए मन विकारे ॥ ८ ॥ सिनेह जाल बढ़ावए जीवे । सहूहि सुधा अधर पिवे ॥१०॥ हरखि हृदय गहए चीरे । परसे अवस कर सरीरे ॥१२॥ तखने उपजु अइसन साधे । न दिअ समत न दिअ बाधे ॥१४॥ भने विद्यापति शो है सयानी । अमिञ मिझल नागरि वानी ॥१६॥ राधा । ५६८ पहिलहि चोरि अएल पास । आङ्गहि आङ्ग झुकाव तरास ।। ३ ।। वाहरि भैले देखिको देह । जैसन खिनी चान्दुक रह ॥ ४ ॥ साजन की कह्य पुरुष काज | कौसल करइते तहि नहि लाज ॥ ६ ॥ एहि तह पाप अधिक थिक नारि । जे न गनए पर पुरुषक गारि ॥ ६॥ खन एक रङ्ग सङ्ग सब भाति । से से करत जकर जे जाति ॥१०॥ भनइ विद्यापति न कर विराम । अवसर पाए पुर तुअ काम ॥ राधा । ५६६. ए धनि रङ्गिनि कि कहव तोय । आजुक कौतुक कहल न होय ।। एकाले सुतल छलि कुसुम शयान । दोसर मनमय करे फुलवान ॥ नूर झुनु झनु ओल कान । कौतुके मूदि हम रहले नयाने ॥ आल काहू वैसल मझ पाश । पास मोड़ि हम लुकामाल है" ड होम लुकाल हास ॥ ८॥