पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२९९

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विद्यापति ।

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विद्यापति। ३८३ समुखे न जाय सघन निशोयास । किए किरन भैले दशन विकाश ॥१२॥ | जागल शाशे चलत तव कान । ने पूरल शीश विद्यापति भान ॥१४॥ राधा । कि कहब के सखि आजुक रङ्ग । सपने हि शुतलु कुरुख सङ्ग ॥ २ ॥ वड सुपुरुख चलि आग्रोलु धाइ । शुति रहलु मुखे ऑचर झेपाइ ॥ ४ ॥ कॉचलि खोलि आलिङ्गन देल । मोहे जगायल तेहि निद गेल ॥ ६ ॥ हे विहि हे विहि वड़ दुख देल । से दुख रे सखि अबहुँना गेल ॥८॥ भनइ विद्यापति इह रस धन्द । भैक किं जाने कुसुम मकरन्द ॥१०॥ राधा । दरशने लोचन दीघर धाव । दिनमनि तेजि कमल जनि जावे ॥ २ ॥ कुमुदिनि चान्द मिलन सहवास । कपटे नुकोविय मदन विकाश ॥ ४ ॥ संजनि माधव देखल ज । महिमा छाडि पलाएल लाज ॥ ६ ॥ नीवी ससरि भूमि पड़ि गेलि । देह नुकोविय देहक सेलि ॥ ८ ॥ अपने हदय वुझावए मान । एकसर सब ,दिस देखिय काह्न ॥१०॥ राधा । जखने जाइ सयन पासे । मुख परेखए दुरसि हालै ॥ २ ॥ तखने- उपजु एहन भाने । जगत भरल कुसुम वाने ॥ ४ ॥