पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२९६

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विद्यापति ।

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| २७८ विद्यापति ।।

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राधा । हम अबला सखि किये गुन जान । से रसमय तनु रसिक सुजान ॥ २॥ ॥ कतहु जतने मोरे कैरे वइसाइ । बॉधल वेनि से कवर खसाई ॥ ४ ॥ कञ्चुक देल हिय पर मोर । पराश पयोधर भै गेल भोर ॥ ६ ॥ कण्ठे पहिराल मनिमय हार । अङ्गे विलेपल कुङ्कुम भार ॥ ८॥ वसन पहिराओल कय कृत छन्द । किङ्किनि जालहि नीवि निवन्ध ॥१०॥ निज कर पल्लवै मुझ मुख माज । नयनहि कयल सुकाजर साज ॥१२॥ अलका तिलक देय चोरि निहारि । कह कविशेखर जो बलिहरि ॥१४॥ -- - राधा । ५५४ अलखिते गोप आएल चलि गेल । ससर खसल चिर समरि न गेल ॥ ३ ॥ आध वदन तह्नि देखल मोर । चीन अँएठ कय चलल चकोर ॥ ४ ॥ काहु मोहि देखलिहु गेलॉहु लजाए । तखनुक लाज अवहु नहि जाए ॥ ६ आध, अधिक सकचित अङ्ग । मोलल मृनाल दोगुन भेल भङ्ग """ चान्दने लेपित तन रह साए । विरहक कसमसि निन्द नहि होय ।। रसके तन्त बुझए जादि केओ । भाव मनए अभिनव जअदै ॥ अलखिते राधा । ५५५ ओल अलखिते गेल । न पूरल मनोरथ चेकत लि भेल विहान । चरन नखर हौर आन बयान ॥ ४ ॥