पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२९४

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विद्यापति ।

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૨૭૬ विद्यापति ।। www y६ । ए सखि देख देख हुक विचार । ठामह कोई लखेइ नहि पार ॥ ६ ॥ धनि कह काननमय देखिय श्याम । से किये गुनव मझु परिणाम ॥ ८॥ चउकि चउकि देखि नागर कान । प्रति तरुतले देख राही समान ॥१०॥ दोहे दोहा यवहु निचय कय जान । दुहुक हृदय पेसल पर सखी । ५४६ दुह रसमय तनु गुने नहि ओर । लागल हक न भॉगइ जोर ॥ ३ ॥ के नहि कयल कतहुँ परकार । दुहु जन भेद करय नहि पार ॥ ४ ॥ जे खल सकल महीतल गेह । खीर नीर सम न हेरेल नह ॥ ६ ॥ जव कोइ वेरि आनल मुख आनि । खीर दण्ड देइ निरसत पनि । तव खीर उमड़ पड़े तापे । विरहवियोग आग देई झाप " जव कोइ पानि अनि ताहि देल । विरहवियोग तबहिं दूर गली भनइ विद्यापति एहन सुनेह । राधा माधव ऐसन नेहे ॥१०॥ सखी । ५५० राधा वदन हेरि कानु आनन्द । जलधि उछल जैसे हैरइते चन्द ।। कतहु मनोरथ कौशलक भरि । राधा कान कुसुम शर समार पुलके पूरल तनु हृदये हुलास । नयन ढुलाढलि लहु लहु होस । दुहुँ अलि विदगध अनवधि नेहा । रस आवेशे विसरि निज दह