पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२८१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति ।। २६३ हे माधव हेरह हखि धनि चॉद उगल जनि महितल मेटि कलङ्क । घर गुरुजन हेरि पलटति कत वेरि शशिमुखि परम ससङ्क ॥४॥ तुअ गुन गन कहि आनल असक साहि दुइए समुखि विसवास । ते परि पठाइअ जें परि पाविअ पर धन विनु परयास ।।६।। जपल जनम जत मदन महामत विहि सफलित करु आज । विद्यापति भन कंसनराएन सोरम देवि समाज ॥८॥ माधव । ५२४ शुन शुन गुणमति राधे । परिचय परिहर कोन अपराधे ॥ २ ॥ गगने उदय कत तारा । चान्द आन नहि अवतारा ॥ ४ ॥ याने कि कहब विशेखि । लाख लखिमिचय न लेखि ॥ ६ ॥ शुनि धनि मनोहदि झुर। तबाह मनहि मनहि मनपुर ॥ ८ ॥ विद्यापति कह मिलन भेल । शुनइते धन्द् सवहि भै गेल ॥१०॥ राधी । ५२५ तुहु जदि माधव चाहास नेह । मदन साखि कए खत लिखि देह ।। २ ।। छोड़ केन्नि क्दम्य विलास । दुर करव निज गुरुजन आस ॥ ४ ॥ | हम विनु सपने न हेरव अनि । हमर बचने करव जलपान ॥ ६ ॥ रजनि दिवस गुन गाव मोर । अनि जुवति कभु न करने कोर ॥ ८ ॥