पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

२५६ विद्यापति । = = =

दूती । ५०६ चड़ जनजञो कर पिरीत रे । कोपहु न तेजय रीति रे ॥ २ ॥ काक कोइल एक जाति रे । भैम भमर एक भाति रे ॥ ४ ॥ हेम हद कत वीच रे । गुनहि बुझिअ उच नीच रे ॥ ६ ॥ मनि कादव लपटाय रे । तेइ कि तनिक गुन जाय रे ॥ ८ ॥ विद्यापति अवधान रे । सपरुप न कर निदान रे ॥१०॥ दूती । प्रथम तोहर पेम गउरवे गरवे वाउरि भैलि ।। अधिक दर लोभ लुवधलि चुकलि तें रतिकेति ॥२॥ खेमह एक अपराध माधव पलटि हेरह ताहि ।। तोह बिना जदि अमिय पीउति तइअओ न जीउति राहि ॥४॥ कालि परसु मधुर जे छलि आज से भैलि तीति । नहु बोलच पुरुष निरय हठाह तेज पिरिती ॥६॥ तुहुँ जौं अब ताहि तेजव इ अति कौन बड़ाई । ' तह बिनु जव जीवन तेजव से वध लागव कॉइ ॥८॥ वइरिह एक अपराध खेमिय राजपण्डित भान । रमन राधा रसिक यदुपति सिंह भूपति जान ।


--------