पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२६८

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૨૬૨ विद्यापति । यौवन अवधि राख अनुबन्ध । आगला विषय अधिक परवन्ध ॥ ८॥ ओ वैसइते कत कर अवधान् । अति सानन्द भए कर मधुपान ॥१०॥ उडइते भर दे न कर सम्भाप । श्रागिला कुसुम अधिक आभलाप ।।१२।। कि कहब माइ हे बुझत अनेक । नागर भमर दुआओ अविवेक ॥१४॥ । भनई विद्यापति सुन वरनारि । पेमक रसे वस होअ मुरारि ॥१६॥ । राधा । ५०० की हमे सॉफक एकसरि तारा भादव चौठिक शशी । इथि दुहु माझ कोन मोर आनन जे पहु हसि न हेरसी ॥२॥ साए साए कहह कहह कहू कपट करह जनु कि मोर परल अपराध ॥२॥ न मोने कबहु तुझे अनुगति चुकलिहु वचन न बोलल मन्दा । सामि समाज पेमे अनुरञ्जिय कुमुदिनि सन्निधि चन्दा ॥५॥ भनइ विद्यापति सुनु वर जौवति मेदिनि मदन समाने । राजा सिवसिंह रूपनरायन लाखमा देवि रमाने ॥७॥ राधा ।। ५०१ वालितहु साम साम पए बोलितह नहि सेसे ते विसवासे । अइसन पेम मोर विहि विघटाओल ना रहल दुरासे ॥२॥ सखि हे कि कहब कहई न जाइ । - मन्द दिवस फल गनहि न पारिअ अपदहि कुपुत कह्लाई-॥४॥