पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५७

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विद्यापति । राधा । ४८० ।। कुल ठाकुर हमे कुल नारि । अधिपक अनुचिते किछु न गोहारि ॥२॥ ने हसव पुनु माय डोलाए । चड़ाक कहिनी बडि दुर जाए ॥४॥ | सुन साजना वचन हमार । अपद् न अंगिरिश अपजस भार ॥६॥ नह परतिति आविअ पास । बड़ वोलि हमहु कएल विसवास ॥८॥ आवे मने गुनि भल नहि काज । वाज़ राखए आंखिक लाज ॥१०॥ राधा । १८१ आसा दइए उपेखह आज । हृदय विचारह कञोनक लाज ॥२॥ हमे अबला थिक अलप गेन। तोहर छैलपन निन्दुत् आन ॥६॥ सुपहु जानि हमे सेग्रोल पाओ। आवे मोर प्राण रहत कि जाओ ॥६॥ कएल विचारि अमिञके पान । होएत हलाहल इ के जान ॥८॥ कतहु न सुनले अइसन वात । सोकर खाइते भाड्ए दात ॥१०॥ राधा । ४८२ वारिस निसा मञ चलि अएलिहु सुन्दर मन्दिर तोर । कत महि अहि देहे दमसल चरणे तिमिर घोर ॥२॥ निज सखि मुख सुनि सुनि कवसि पेम तोहार । हमे अबला सहए न पारल पचसर परहार ॥४॥ ।।