पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५५

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विद्यापति । 12:54, 21 February 2019 (UTC) 12:54, 21 February 2019 (UTC)12:54, 21 February 2019 (UTC)~~ राधा । -* ४७६ हि पेम रस ततहि दुरन्त । पुन कर पलटि पिराित गुनमन्त ॥२॥ तहु सुनिअ अइसन वेवहार । पुनु टूटए : पुनु गॅथए हार ॥४॥ कट्स ए कट्स तोहहि सान । विसरिय कोप करिअ समधान ॥६॥ क ऑकुर तोहें जल देल । दिने दिने वाढ़ि महातरु भेल ॥८॥ अ गुने न गुनल सउतिनि छ । रोपि न काटिये विपहुक गाछ ॥१०॥ - नेह उपजल प्रानक ओल । से न करिअ दुर दुरजन बोल ॥१२॥ गत विदित भेल तोह हम नेह । एक परान कएल दुई देह ॥१४॥ नई विद्यापति करच उदास । वडाक वचने करिअ विसवास ॥१६॥ राधों। ४७७ नगन गरज मेघा जामिनि धेर । रतनहु लागि न सवारु चौर ॥२॥ रहना तेजि अएलाहुं निग्र गेह । अपनहु न देखिय अपनुक देह ॥४॥ तिला एक माधव परिहर मान । तुको लागि संसय परल परान ॥६॥ दुसह जमुना नर अइलिहु भागि । कुचजुग तरल तरनि त लागि ॥६॥ देह अनुमति है जुझग्रो पंचवान । तोहे सन नगर नागर नहि आन ॥१०॥ भनइ विद्यापति नारी सोभाव । अपनुक अभिमत उकुति जनाव ॥१३॥ राजा रुपनारायन जान । राए सिवसिंह लखिमा देइ रमान ॥१४॥