पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५३

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vwww-~~••••• विद्यापति । २३६ माधव तुअ मुख दरसन लागी । वेरि वेरि आवको उतर न पाव भेलाहु विरह रस भाग ।।४।। जखने तेजल गेह सुमरि तोहर नेह गुरु जन जानल तावे । तोहें सुपुरुस पहु हमे तो भेलिहु लहु कतहु आदर नहि आवे ॥६॥ राधा । ४७२ से काहू से हम से पचवान । पाछिल छाड़ि रङ्ग आवे आन ॥२॥ | पाछिलाहु पेमक कि कहव साध | आगलाहु पेम देखिय अवे अधि ॥४॥ वोलि विसरलह दय विसवास । से अनुरागल हृदय उदास ॥६॥ | कवि विद्यापति इहो रस भान । विरल रसिक जन ई रस जान ॥८॥ राधा। ४७३ माधव वचन करिय प्रतिपाले । बड़ जन जानि शरन अवलम्वलि सागर होयत सताले ॥२॥ भुवन भमिये भमि तुय यश पालि चैदिसि तोहर बड़ाई। चित अनुमान वुझि गुन गौरव महिमा कहलो न जाइ ॥४॥ आगा सभ केयो शील निवेदय फल जानिय परिनामे। वडाक वचन कबहु नहि विचलय निशिपति हरिन उपामे ॥६॥ भनइ विद्यापति शुनु वरजौवति एह गुन कोउ न आने । राय सिवसिंह रुपनारायन लाखमा देइ पति जाने ॥८॥