पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२५२

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विद्यापति ।। | २३६

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राधा । | ४६६ आजु परल मोर कोन अपराधे । किय न हेरय हरि लोचन आधे ॥२॥ अनि दिन गहि गृम लाविय गेहा । वहुविध वचन वुझावए नेहा ॥४॥ मन ए रुसि रहल पहु सोइ । पुरुपक हृदय एहन नहि होई ॥६॥ भनइ विद्यापति शुन परमान । बाढ़ल प्रेम उसरि गेल मान ॥८॥ राधा । ४७० कान्ह विरस कथि लागि । किये भैल हमर अभागि ॥ २ ॥ जब हम गेल पिया पास । तैजइ दीघल निशास ॥ ४ ॥ जबहु पुछल वेरि वेरि । सजल नयने रहु हेरि ॥ ६ ॥ जब हम रहल निहार | लोचन झरु अनिवार ॥८॥ तवधरि बुझल विचार | कठिन जीवन वरनारि ॥१०॥ कविशेखर परमान | न जायत पाप परान ॥१२॥ राधा । ४७१ सुनि सिरिखण्ड तरु से सुनि गमन करु छाड़त मेदन तनु ता" आरित यइलिहू ते कुम्भिलइलिहू के जान पुरुवकेर पापे ॥३॥