पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विद्यापति । ३३१ - - - दूती । ४५४ | तुह मान धएलि विचारे । अवे कि करच प्रतिकारे ॥ २ ॥ | तुहु एडीओलि रतने । मान हृदय कीर धरलि जतने ॥ ४ ॥ मान गरुञ किय धरलि । कानुक करुना करने नहि सुनील ॥ ६ ॥ वञ्चित भै पहु चलला । कलियुग पाप सतत तोहे फलला ।।८।। न सुनील महाजन मुखको । जाचत वाघ न खाएत बनको ॥१०॥ मानिनि मान भुजङ्गे। जारल वीख भरल सब अड़े ॥१३॥ सुकवि विद्यापति गाओल । पुरुव कृत फल पाओल ॥१४॥ दूती । ४५५ नु चाल विसि पुनु चाले जासि । बोलो चाहसि किछु बोलइते लजासि ॥२॥ [स दुइए हरिकहु किए लेसि । अधरा वचने उतरो न देसि ॥४॥ राधा । कुन दूती तोळे सरूप कह मोहि । सङ्ग सञो कपट हमर भेल तेहि ॥६॥ रह्निकरि कथा कहसि को लागि। जूड़हू हृदय पजारसि आगि ॥८॥ तहिकर कउसल मोरा पअ दोस। कहले कहिनी वाढ्य रोस ॥१०॥ भनइ विद्यापति एहु रस भान । रोए सिवसिंह लाखमा देइ रमान ॥१२॥