पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४१

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विद्यापति । ३२७

ठूती । ४४६ | दिवस तिल आध राखवि यौवन वहइ दिवस सब जाव ।। भल भन्दै दुई सङ्ग चल जायव पर उपकार से लाभ ।।२।। सुन्दरि हरि बधे तुहु भेलि भागि । राति दिवस सोइ अनि नहि भावय काल विरह तुय लागि ॥४॥ विरह सिन्धु माहा डुवइते छय तुय कुचकुम्भ नख देई । तुहुँ धनि गुणवति उधार गोकुलपति त्रिभुवन भरि यश लेइ ॥६॥ लाख लाख नागरि जे कानु हेरई से शुभ दिन कए मान । तुय अभिमान लागि सोइ आकुल कवि विद्यापति भान ।। ठूती । कत खन वचन विलासे । सुपुरुख राखिअ आशा पासे ॥ २ ॥ श्रावे हमें गेलिहु फेदाई । अथिरक तर मधय लजाई ॥ ४ ॥ वोलि विसरलह रामा । सखि असचौलिहे कत कतठामा ॥ ६ ॥ पर विपते न रह रङ्गे । कुसुमित कानन मधुकर सङ्गे ॥ ६ ॥ समय खेपास कति भाती । बड़ि छोटि भेलि मधुमासक राती ॥१०॥