पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२४०

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२२६. विद्यापति ।। »••••••• एहि मही आध अथिर जीवन जउवन अलप काल ।' इथी जत जत न विलसिअ से रह हृदय साल ॥८॥ तोर धन धनि तोराहि रहत निधन होएत अन ।। दानक धरम तोराहि होएत कवि विद्यापति भान ॥१०॥ दूती । ४४४ जहिआ कान्ह देल तोहि नि । मने पाओल भेल चौगुन वोनि ॥२१॥ आवे दिने दिने पेम भेल थल । कए अपराध वोलव कृत वोल ॥ ४ ॥ आवे तोहि सुन्दर भने नहि लाज । हाथक काकन अरसी काज।' पुरुषक चञ्चल सहज सोभावे । कए मधुपान दो दिस धाव ॥६॥ एकहि वेरि तळे दुर कर आस । कूप न आवए पथिकक गेले मान अधिक हो सङ्ग । बड़े कए की उपज ठूती । ४४५ ए धनि मानिनि कठिन पनि । एतहे विपदे तुहुँ न कहसि बनि ऐसन नह होय प्रेमक रीत । अवके मिलन होय समुर्चति ॥४॥ तोहर विरहे यव तेजव परान । तब तुहुँ का सक्ने साधवि मान ३ . """""""" के कह कोमल अन्तर तोय । तुइँ सम कठिन हृदय नहि होय । " "" "" ine अब यदि न मिलह माधव साय । विद्यापति तव ने कहब बात । ने कहव वात ॥१०॥