पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३१

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विद्यापति । खने खने सकल कुसुम मन तोषय निशि रहुँ कमलिनि सड़े ।। चम्पक एक जइओ नहि चुम्बय इथे लागि निन्दह भृङ्गे ॥१०॥ पॉच पञ्च गुन दश गुग चौगुन आठ द्विगुण सखि माझे । कवि चम्पति कह कान्हु कुल तो बिनु विपाद न पावसि लाजे ॥१२॥ राधा । ४२१ तोहर वचन अमिय ऐसन ते मति भुललि मोरि । कतए देखल भल मन्द होअ साधु न फावए चोरि ॥२॥ साजन आवे कि चलव आयो । आगे गुनि जे काज न करए पाछे हो पचताओ ॥४॥ अपनि हानि जे कुलक लाघव किछु न शनल तवे । मने मनमथ वानहि लागल ग्रोव गमाग्रोल हमे ॥६॥ जतने कत न के न वेसहिए गुंजा के दहु कीन ।। परक वचने कुञ धस देश तैसन के मतिहीन ॥८॥ नागर भमर सवे केयो बोलए मनै धनि जानल मौर । पढि गुनि हमें सब विसरल दोस नहि किछु तोर ॥१०॥ भने विद्यपति सुन तोळे जुबति हृदय न कर मन्द । राजा रुपनरायन नागर जनि उगल नव चन्द ॥१२॥