पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२३

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विद्यापति । भाधव । ३६ जाइत पेखल नहोइल गोरी । कति सने रूप धनि अनलि चौरी ॥३॥ केश निंगारइत बह जलधारा । चामरे लिय जनि मोतिम हारा ॥ ४ ॥ अलकहितीतल तहि अति शोभा । अलिकुल कमले बेढ़ल मधु लोभा ।। ६ । नीरे निरञ्जन लोचन राता । सिन्दूरे मण्डित जनि पङ्कज पाता ॥८॥ सजल चीर रह पयोधर सीमा । कनक बेल जनि पडि गेल हीमा ॥ १० ॥ | अनुकि करतहि चाहे किय देहा । अबहि छोडब मोहि तेजब नेहा ॥ १२॥ ऐसन रस नहि पाओब आरा । इथे लागि रोई गलय जलधारा ॥ १४ ॥ विद्यापति कह शुनह मुरारी । वसन लागल भाव रूप निहारी ॥ १६ ॥ (७) राता=लाहित । (११-१४) उयह (वस्त्र) देहके लुकाना चाहता है, (कहता है) अभी हमें छोड़ेगा (अर्थात् आर्द्र वस्त्र त्याग करके देह शुष्क वस्त्र धारण करेगा) पैसा रस फिर नहीं पाऊँगा । इसी कारण से रोकर जलधारा त्याग करता है। (१९) रुप देस कर चसन की भी भाव लग गया। ( सखी के सहित सखी की कथा ) नहाइ उठल तीरे राहि कमलमुखि समुखे हेरल बरकान । गुरुजन सङ्गे लाजे धनि नतमुखि कैसने हेरव चयन ॥ २ ॥ सखि हे अपरुच चातुरि गरि ।। सर्व जन तेज अगुसरि सबरि आड़ वदन तर्हि फेरि ॥ ४१ तेहि पुन मोति हार टूटि फैकल कहइत हार टूटि गेल । सच जन एक एक चुनि सञ्चरु शाम दरश धनि लेल ।। ६ । नयन चकोर कान्हू मुख शशिवरकयल अमिय रस पान ।। दुहु दुहु दरशन रसहु पसारत कवि विद्यापति भान ॥८॥ (४) अगुसरि=आगे जाकर। (६) साईझुक करटूटा हुआ हार का मेवाती चुनने लगे,तराधिकाजी इयमि का दर्शन किया।