पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२२९

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विद्यापति । दूती । ४१७ सौरभ लोभे भमर भमि आएल पुरुब पेम विसवासे । बहुत कुसुम मधु पान पिसिल जाएत तुअ उपासे ॥२॥ मालति करिअ हृदय परगासे । कत दिन भमरे पराभव पाव भले नहि अधिक उदासे ।।४।। कझोनक अभिमत के नहि राखए जीवो दए जग हेरि । की क्व तें धन अरु जीवने जे नहि विलसए वेरि ॥६॥ सवहि कुसुम मधुपनि भमर कर सुकवि विद्यापति भाने । राजा सिवसिंह रूपनराएन लखिमा देवि रमाने ॥८॥ दूती । ४१८ सिनेह बढ़ाओब इ छल भान । तोहर सोयाधिन करब परान ॥ २ ॥ भल भेल मालति भैलि हे उदास । पुनु न आग्रोव मधुकरे तुय पास ॥ ४ ॥ एतवा हम अनुतापक भेल । गिरि सम गौरव अपदहि गेल ॥ ६ ॥ अलपे चुकलह नि वेवहार । देखतहि निय परिनाम असार ॥ ८॥ भनहि विद्यापति मन दुए सेव । हासिनि देवि पति गजर्सिह देव ॥१०॥ सखी । ४ १६ मदन कुञ्ज तेजि चललि चतुर दूति पवनक गति सम गेल । खिति नखे लिखि देखि मुख झॉपल राहि उतर नहि देल ॥२॥