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विद्यापतिं । त्रिवलि तरङ्ग सितासित सङ्गम उरज शम्भु निरयान । प्रारति पति मगइछि परतिग्रह करु धनि सरबस दान ॥८॥ दीप दीपक देखि थिर न रहय मन दृढ़ करु अपन गेयान । सञ्चित मदन वेदन प्रति दारुन विद्यापति कवि भान ॥१०॥
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दूती । ४१३ विमल कमलमुखि न करिय माने । पाओत वदन तुय चॉद समाने ॥ १ ॥ कामे कपट कनकाचल आनी । हृदय वइसाल दुइ करे जानी ॥ ४ ॥ ते पातके तोहि माझहि खानी । लघु गति हँसहु तह अति हीनी ॥ ६ ॥ ऐं धने सुखित होयत युवराजे । वसने झपावह की तोर काजे ॥ ८॥ हसि परिरम्भि अधर मधु दाने ।कखने फुजलि निवि केओ नहि जाने ॥१०॥ भनइ विद्यापति रसिक सुजाने । रुकुमिनि देवि पति सुन्दर कान्हे ॥१२॥ सखी । की कुच अञ्चले राखह गोए । उपचित कतए तिरोहित होए ॥२॥ उपजलि प्रीति हठहि दुर गेलि । नयनक काजरे मुख मसि भलि ॥४॥ ते अवसादे ग्रेवस भेल देह । खत खरिश्रा सन भेल सिनेह ॥६॥ जञों वाजलि तो संसय गेलि । यानि नव निधि जनि देति ॥८॥ भनइ विद्यापति एहु रस जान । राजा सिवसिंह रूपनरायन लखिमा देवि रमाना१०॥