पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२२४

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विद्यापति । ऐमन सोहान सुरति समय वन पुनमति रच रतिरङ्ग ॥२॥ देखिन पवन वह सितल सबहु तह मलयज रज लए आव । कओन जुवति मन मनसिज नहि हुन सचे कर बस परथाव ॥४॥ हरि हरि कोने पर रह हृदय धरि हरि परिहरि एहि राति । दोख सुपहु नति र तिरङ्ग न करति | कोन कलावति जाति ॥६॥ विद्यापति कह सुन्दर सब तह कर परसन मन आज । गुन गुनि सुवदनि मिलह रसिक मनि पुन वले सुपहु समाज ॥८॥ सखी । मानिनि आव उचित नहि मान । एखनुक रङ्ग एहन सन लगइछ जागल पए पचवान ॥२॥ जुड़ि रयनि चकमक कर चॉदनी एहन समय नहि आन । एहि अवसर पिय मिलन जेहन सख जकरहि हो से जान ॥४॥ रभास रभसि अलि विलास विलसि करि जे कर अधर मधु पनि । श्रेपन अपन पहु वह जेमाल भुखल तुय यजमान ॥६॥