पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२१०

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१६६ विद्यापति ।। विमल कमल मधु सुधा सरिस विधु नेह न मधुप विचार । हृदय सरिस जन न देखिय जति खन तति खन सगर अँधार ॥६॥ दूती । ३८५ रामा है की आव वोलसि छान । तोहर चरने शरन से हर अबहुँ न मिटे मान ॥२॥ गोवर्द्धन गिरि बाम करे धरि जे कयल गोकुल पार । बिरहे से खीन | करक कङ्कन मानय गरुय भार ॥४॥ कालि दमन करल जे जन चरन युगल बरे । अब से भुजङ्ग भरमे भुलल | हृदये न धर हारे ॥६॥ सहजे चातक न छाड्य बरत न वइसे नदि तीरे । नव जलधर वरिखन विनु न पिये ताहेर नीरे ॥८॥ । यदि दैव वशे अधिक पियास पिवय हेरय थोर ।