पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२०४

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१८८ विद्यापति । - - माधव । ३६८ मुख तोर पुनिमक चन्दा । अधर मधुरि फुल गल मकरन्दा ॥२॥ अगे धनि सुन्दर रामा । रभसक अवसर भैलि हे वामा ॥४॥ कोपे न देहे मधुपाने । जीवन जौवन सपन समाने ॥६॥ माधव । ३६६ पुरुबक प्रेम अइलहुँ तुय हेरि । हमरा अवइत वइसलि मुख फेरि ॥२॥ पहिल वचन उतरो नहि देलि । नयन कटाक्ष संजीव हरि लेलि ।।४॥ तह शशिमुखि धनि न करिय मान। हमहुँ भमर अति विकल परान ॥६॥ असा दए पुन न करिय निराश । होउ परसन मोर पूरह आश ॥८॥ भनइ विद्यापति सुनु परमान । दह मन उपजल बिरहक वान ॥१०॥ कवि । ३७० कत कत अनुनय करु बर नाह। ॐ धनि मानिनि पलटि ने चाह ।।२।। वहुविध बानि बिलपय कान। सुनइते शत गुन वाढय भान ॥४॥ गदगद नागर हेरि भेल भीत । वचन न निकसय चमकित चीत ॥६॥ परशइते चरन साहस न होय । कर जोढ़ि ठाढ़ि वदन पुनु जाय। विद्यापति कह सुन बर कान । कि करबि तुहें अब दुर्जयमान ॥१०॥