पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/२०१

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विद्यापति । १६५ माधव । ३६२ मालति मन जनु मानह आने । तोहरा सौं हम जे किछु भाखल सेह वचन परमाने ॥२॥ सभ परितेजि तोहि हम भजलहूँ ताहि करत के भङ्गे।। जौ दुर्जन जन कोटि जतन कर तैयो जनम भरि सङ्गे ॥४॥ अनुखन मन धनि खिन्न करह जनि देव शपय थिक लाखे । हमरा तहहि दोसरि नहि तेहनि मन अछि दृढ़ अभिलाखे ॥६॥ विधिक दोख जत रोख कयल मत वचन कहल एक आधे । नागरि सेह जगत गुन गरि खेम पति अपराधे ॥८॥ विद्यापति कह धैरज सब तेह मन जनु करह मलाने । तुअ गुन मन गुनि पहु रह अनुगत करत अधर मधु पाने ॥१०॥ माधव । तनिहि लागि फुलल अरबिन्द । भूखल भमरा पिव मकरन्द ।।२।। विरल नखत नभमण्डल भास । से सुनि कोकिल मने उठ हास ॥४॥ ए रे मानिनि पलटि निहार । अरुन पिवए लागल अन्धकार ॥६॥ मानिनि मान मध घन तोर । चोरावए अएलाहु अनुचित मोर ।।८॥ ते अपराधे मार पॅचवान । धनि धर हरिकए राख पनि ॥१०॥ 24