पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१९४

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१८० विद्यापति । हमर वचने यदि नह परतीति । बूझि करह शाति ये होय उचीत ॥६॥ भुज पाशे चॉधि जघन पर तारि । पयोधर पाथर हिय देह भारि ॥ ८ ॥ उरु कारागारे बॉधि राख दिन राति । विद्यापति कह उचित इह शाति ॥१०॥ माधव । ३५२ सुन सुन सुन्दरि कर अवधान | बिनु अपराधे कहसि काहे आने ॥२॥ पुजलों पशुपति यामिनि जागि । गमन विलम्वन भैल तहि लागि ॥४॥ लागल मृगमद कुङ्कम दाग । उचारइत मन्त्र अधरे नहि राग ॥ ६ ॥ रजनि उजागरि लोचन घोर । ताहि लागि तुहु मोहे बोलसि चोर ॥८॥ नवे कविशेखर कि कब तय । शपथ करह तव परतीत होय ॥ १० ॥ माधव । ३५३ मान परीहर है करु वचन मोरा । मार मनोभव है धरु शरन तोरा ॥२॥ न कर न कर है मोहि विमुख अाजे । अपरुव पेमे हे पुन भेल समाज ॥६॥ कमल वदनि हे करु ऑकम दाने । बिनये के नहि हे जगते जयमान ॥" विद्यापति कवि है भन कवि धीरे । राजा शिवसिंह हे नरपति वीर ।' माधव । सरदक ससधर सम मुख मण्डल कॉइ झपावसि वासे । अलपेश्रो हास सुधारस बरिसशो छोडौं नयन पिसें ॥ ३ ॥