पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१८६

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विद्यापति । राधा । ३४२ मनसिज वाने मोर हरल गैंयाने । बोललह तोहे मोरि दोसरि पराने ॥२॥ वचनहु चुकलासि वे की छडा । समुह निहारसि साहस वडा ॥ ४ ॥ कि तोहि बोलिव कान्ह कि बोलिवो तोही। बेरि बेर कत परिपञ्चास मोही ॥६॥ भॉगिले भासा तोलिले आसा । आवे कके कसि तोळे मुख परगासा ॥८॥ लाजक अपगमे चीन्हलि जाती । पेम करह अनतए गेलि राती ॥१०॥ खण्डित जुवति कवि विद्यापति भाने । पेअसि वचने लजाएल कान्हे ॥१३॥ रूपनरायन एह रस जाने । राए सिवसिंह लखिमा देइ रमाने ॥१४॥ राधा । ३४३ परिजन पुरजन वचनक रीति । पेम लुबुध मन भैलि परतीति ॥ २ ॥ निअ अपराध चालत की आने । कुमुदहि भेल कमल के भाने ॥ ४ ॥ एहि अनुभवि बुझल सरूपे । नअन अछइते निमजालहु कूपे ॥ ६ ॥ जाद तोहे माधव सहज विरागी । लोचन गम कएल कथि लागी ॥८॥ पुनु जनु बोलह अइसनि भासा । कहुक कउतुके काहु निरासा ॥१०॥ नहि नहि बोलह दूरसह कापे । जतने जनाए करइछह गोपे ॥ १२ ॥ परतख गोपवे के पतिआउ । बरु मनमथ सरे जीवन आउ ॥ १३ ॥ भनइ विद्यापति एहु रस भाने । पहचिहि अवतरु नव पॅचबाने ॥१५॥ रूपनरायन एहु रसमन्ता । गुन निवास लखिमा देवि कन्ता ॥१८॥