पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७९

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विद्यापति । १७१ wwwm सखी । ३३३ कोप करए चाह नयने निहारि रह धरिवा न पारय हासे । न बोल परुस वाक न मुख अरुन थाक चॉद् कि जलइ हुतासे ॥२॥ ए सखि मान करवा न जाने । कत खन सिखाउवि आने ॥४॥ न न न न न न भन पिअरे नखरे हन | जेओ जान तथिहु लजाइ । न कर भौह भङ्ग न धरि मोलइ अङ्ग | खनहि सुलभ भए जाइ ॥६॥ अपने अथिक सुखि न धर परेरे बुधि विसम कुसुमसर माया ।। विरह सोस भैले भल हो अधर देले | रौद सोहाउनि छाया ॥८॥ भनइ विद्यापति होइह दून रति | पूजवते पञ्चबाने । रूपिनि देविपति मति सिरि रतिधर सकल कलारस जाने ॥१०॥