पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१७२

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विद्यापति । राधा । हे हरि है हरि सुनिय श्रवण भरि अब न विलासक बेरा ।। गगन नखत छल सेहो अवेकत भेल कोकिल करइछ फेरा ॥२॥ चकवा मोर शोर कय चुप भेल ओठ मलिन भेल चन्दा । नगरक धेनु गरकइ सञ्चर कुमुदिनि बसु मकरन्दा ॥४॥ मुखकेर पान सेहो रे मलिन भेल अवसर भल नहि मन्दा । विद्यापति भन इहो न निक थिक जग भरि करइछ निन्दा ॥६॥ राधा । ३२२ कुमुदवन्ध मलीन भासा चारु चम्पक अरुन विकासा शुद्ध पञ्चम गाव कलरव कलय कण्ठी कुज़रे ॥ १ ॥ रे रे नागर जए देहे निग्न घर छोड़ अञ्चल जाव पथ नहि पथिक लाज डर नहि तो परानी दे मेरानी रे ॥ २ ॥ सुनिय दन्दा जनक रोरा चक्क चक्की विरह थोरा निसि विरामा सघन हक्कइत मुझूनारे ॥ ३ ॥ धोए हलु जनि नयन कजल अमिञ लए जनि कएल उज्ज्वल अवह न वल्लभ तुअ मनोरथ काम पूरो रे ॥ ४ ॥ हृदय उखड़ मेंतिम हारा निफुल फुल मालति माला चन्द्रसिंह नरेस जीवो भानु जम्प रे ॥ ५ ॥