पृष्ठ:विद्यापति ठाकुर की पद्यावली.djvu/१४५

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विद्यापति । १४ १ । सखी । २७७ सज्जा तेजि वामा खन बहिराय । खने मुरछित तनु कान्दे उभराय ॥ २ ॥ खने बाहर आय चल आध पथ । दूति सह कलह करए अनुरत ॥ ४ ॥ दारुण दूती साधलि बाद । आज हम तेजव रति सुख साध ॥ ३ ॥ राधा। २७८ पाशरइते शरीर होय अवसान । कइत न लय अव बुझह अवधान ॥ २ ॥ कहए न पारिय सहन न जाय । बचह सजनि अव कि कर उपाय ॥ ४ ॥ कोन विहि निरभिल इह पुन नेह । काहे कुलवति करि गढ़ल मझु देह ॥ ६ ॥ काम करे धरिय से करय बहार । राखय मन्दिरे इ कुल अचार ॥ ८ ॥ सहइ न पारिय चलइ न पारि । घन फिरि जैसे पिजर माहा सारि ॥१०॥ एतहे विपदे किय जीवय देह । भनइ विद्यापति विपम इ नेह ॥१२॥ सखी । २७६ कह कह सुन्दर न कर बेयाज । देखिये आजै अपुरव सवे साज ॥ ३ ॥ मृगमदै पङ्के करसि अङ्गराग । कौन नगर परिनत होअ भाग ॥ ४ ॥ पुनु पुनु उठसि पछिम दिस हेरि । कखन जाएत दिन कत अछ वेरि ।। ६ ।। नेपुर उपर करसि कसिं थीर । दृढ कए पहिरसि तम सम चीर ॥ ८ ॥ उठास विहुसि हसि तेजिय सार । मेरे मन भाव सघन अन्धकार ॥१०॥ भनइ विद्यापति सुन चरे नारि । धैरज कर मने मिलत मुरारि ॥१२॥